मुक्ति की आकांक्षा
नमस्कार,
बोध-गंगा में आपका स्वागत है।
प्रत्येक मनुष्य अपार सम्भवनाओं से भरा होता है या इसे इस तरह से भी कह सकते हैं कि संपूर्ण अस्तित्व ही अपार सम्भवनाओं से भरा होता है।
मनुष्य जीवन का वह महत्त्वपूर्ण पड़ाव होता है जब स्वयं से प्रश्न पूछता है कि मैं कौन हूँ,ये जीवन क्या है?सुख-दुख की भावनाओं से नियंत्रित ये मेरा जीवन कष्टपूर्ण क्यों है?सुख क्षणिक क्यों है?और दुःख घनघोर क्यों हैं? मेरे होने का अर्थ क्या है? मेरा होना ही क्यों आवश्यक है? इस तरह के प्रश्नों में बड़ी पीड़ा झलकती है।आखिर ऐसा क्यों या वैसा क्यों?
वास्तव में संसार एक पिंजरें के समान है,जिसमें अनेक सुख-दुःख के दाने जीव रूपी पक्षी चुगता है,जब इन दानों से मन भर जाता है तब यह जीव विचार करता है ये पिंजरा खुलता क्यों नहीं?मुझे मुक्ति कब मिलेगी?
मुक्ति या आध्यात्मिक भाषा में जिसे मोक्ष कहते है परंतु प्रश्न ये उठता है ये मुक्ति क्या है?जीव में मुक्ति को लेकर स्वाभाविक उत्कंठा क्यों होती है?
जीवन-मरण के चक्र से छूटने और दुःख और सुख की आसक्ति की मिटने का नाम मुक्ति है।व्यक्ति की अभिव्यक्ति का अंत ही मुक्ति है।जो मुक्ति की आकांक्षा रखता हो वह उस ज्ञान को पाने का अधिकारी हो जाता है; जो बताता है कि इस अस्तित्व में क्या है जो पूर्ण और सर्वथा मुक्त है।
ज्ञान हमें आत्मस्वरूप का दर्शन कराता है।स्वयं से स्वयम का ज्ञान ही आत्मज्ञान है।आत्मज्ञान होते ही मुक्ति तत्क्षण संभव है। मुक्ति तो मात्र एक परिकल्पना है।अज्ञान के नष्ट होते ही यही ज्ञान होता है कि 'मैं' पहले से ही मुक्त हूँ और जो बंधन में है वो 'मैं' नहीं हूँ।
जो बंधन का अज्ञान समाप्त कर दें वही मुक्ति है।
'मैं'(स्व) का ज्ञान मुक्ति का द्वार है।
----------- * * श्री गुरुवे: नम: * * ----------
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